रविवार, 22 मार्च 2009

दिलकी राहें.........

बोहोत वक़्त बीत गया,
यहाँ किसीने दस्तक दिए,
दिलकी राहें सूनी पड़ीं हैं,
गलियारे अंधेरेमे हैं,
दरवाज़े हर सरायके
कबसे बंद हैं !!
पता नही चलता है
कब सूरज निकलता है,
कब रात गुज़रती है,

ज़िंदगी ! ज़िंदगी !

ज़िंदगी, ज़िंदगी, ज़िंदगी....!
कैसे कहूँ तुझसे ,
मेरे क़दम भी तेरे ,
ज़मीं भी तू क़दमों तले,
फिरभी क्यों करके ,
खिसक जाती है तलेसे ?
क्योंकर खुदको खुदसे,
सज़ा देती है तू ?
बेहद थक गयी हूँ,
पहेलियाँ ना बुझवा तू,
इतनी क़ाबिल नही,
इक अदना-सा ज़र्रा हूँ,
कि तेरी हर पहेली,
हरबार सुलझा सकूँ......
के सदियोंसे अनबुझ
रहती आयी है तू......
जो अक्षर लगे थे ,
कभी रुदन विगत के,
या बयाँ वर्तमान के,
क्या पता था, वो मेरे,
आभास थे अनागातके ?
मेरा इतिहास दोहराके,
क्या पा रही रही है तू?
क्या बिगाडा तेरा के,
ये सब कर रही है तू?
कुटिल-सी मुस्कान लिए,
इस्क़दर रुला रही है तू?
जानती हूँ, दरपे तेरे,
कोई ख़ता काबिले,
माफ़ी हरगिज़ नही,
पर ये ख़ता, की है तूने...
इतिहास हरबार दोहराए,
जा रही तू, और मुझे,
ख़तावार ठहरा रही है तू??
ज़िंदगी क्या कर रही है तू??
किस अदालातमे गुहार करुँ,
हर द्वार बंद कर रही तू??
कितनी अनबुझ पहेली,
युगोंसे रही है तू...!!!

कट्घरेमे ईमान खड़ा...!

बोहोत सच बोल गयी,
बड़ी ना समझी की,
बस अब और नही,
अब झूठ बोलूँगी,
समझ आए वही,
सोचती हूँ ऐसाही!!
कट्घरेमे खडा किया,
सवालोंके घेरेमे, मेरे अपनों,
तुमने ईमान कर दिया !
तुम्हें क्या मिल गया ??
इल्तिजा है, रेहेम करो,
मेरी तफतीश करना,
खुदाके लिए, बंद करो!
भरे चौराहेपे मुझे,
शर्मसार तो ना करो!!
शर्मसार तो ना करो!

आज सरेआम गुनाह
सारे, कुबूल करती हूँ,
की या जो नही की
खुदको ख़तावार कहती हूँ,
हर ख़ता पे अपनीही,
मुहर लगा रही हूँ!!
इक़बालिया बयाँ देती हूँ,
सुनो, अये गवाहों, सुनो,
ख़ूब गौरसे सुनो !
जब बुलावा आए,
भरी अदालातमे, तुम्हें,
तुम बिना पलक झपके,
गवाही देना, ख़िलाफ़ मेरे!
गवाही देना, ख़िलाफ़ मेरे!

बाइज्ज़त बरी होनेवालों!
ज़िन्दगीका जश्न मनाओ,
तुम्हारे दामनमे हो,
ढेर सारी ख़ुशी वो,
जिसकी तुम्हें तमन्ना हो,
तुम्हारी हर तमन्ना पूरी हो,
तहे दिलसे दुआ देती हूँ,
जबतक साँस मे साँस है,
मेरी आखरी साँस तक,
मेरी दुआ क़ुबूल हो,
सिर्फ़ यही दुआ देती हूँ...!!
सिर्फ़ यही दुआ दे सकती हूँ!!
शमा

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

विनाशकाले विपरीत बुद्ध्ही.

आज नीरज जी कविता पढ़ आयी...सच का जो दम भरते हैं...उनके बारेमे सच सुनतेही तिलमिला उठ ते हैं....!कितना सच है....

पोहोचीं किसीके पनाहमे,एक कोमलांगी,
नयी, किरण थी, दुनियादारीसे अनजान थी,
सुबह एक भिक्षुक आया, कुछ दान दे देवी,
उससे कहने लगा, कहके के अभी आयी,
वो रोटी लाने अन्दर गयी, पीछेसे आवाज़ आयी,
कह दे, घरमे कुछ नही ,कह नही सकती?
पर घरमे तो रोटी...खामोश, घरमे कुछ नही!
वो भरमा गयी, वो कहाँ आ गयी थी?

जैसे, जैसे दिन बीते, बात समझमे आने लगी,
वो सुकुमार भोली, झूठके डेरेमे, पोहोंची थी
बंदिशोंकी ऊंची, ऊँची दीवारें थी, कितनी घुटन थी!
चाहा कि कुछ ताज़गी पाए, उसने इजाज़त पूछी,
ना, ना, यहाँ ये चलन नही, तुम अभी समझी नही?
तू इन्हें पार नही कर सकती,आनेके पेहेले सोंच लेती?
इस बातको बरसों बीते, उसकी तो तब मत मारी गयी थी॥
क्या नाम दें उस नादानीको,विनाशकाले विपरीत बुद्धी !!
शमा

गुरुवार, 19 मार्च 2009

दरारें.....!

रिश्तोंमे पड़ीं, दरारें इतनी,
के, मर्रम्मत के क़ाबिल नही रही,
छूने गयी जहाँ भी, दीवारें गिर गयीं...
क्या खोया, क्या मिट गया,या दब गया,
इस ढेर के नीचे,कोई नामोनिशान नहीं....
कुछ थाभी या नही, येभी पता नही...
मायूस खडी देखती हूँ, मलबा उठाना चाहती हूँ,
पर क्या करुँ? बेहद थक गयी हूँ !
लगता है, मानो मै ख़ुद दब गयी हूँ...
अरे तमाशबीनों ! कोई तो आगे बढो !
कुछ तो मेरी मदद करो, ज़रा हाथ बटाओ,
यहाँ मै, और कुछ नही, सफ़ाई चाहती हूँ...!!
फिर कोई बना ले अपना, महेल या झोंपडा,
उसके आशियाँ की ये हालत ना हो,
जी भर के दुआएँ देना चाहती हूँ...!!

सारी पुकारें मेरी हवामे उड़ गयीं...
कुछेक ने कहा, ये है तेरा किया कराया,
खुद्ही समेट इसे, हमें क्यों बुलाया ?

मै हूँ वो पगली....

"हमने छोड़ दी सारी
दुनिया और दुनियादारी,
किसी एकके लिए,
जिनके लिए छोडी,
वो बड़े दुनियादार निकले,
पलटके हँसी उडाई,
बोले, वो सकते नही,
छोड़, दुनिया उनकी,
एक पगलीके लिए.....
मैही तो हूँ वो पगली,
वो परसों फिर एकबार,
दोहरा गए...बार बार कह गए...."

शमा....

मान गए तुझे, ज़िंदगी...!

"मान गयी तुझे अए ज़िंदगी,
तू नही तो कुछभी नही!
क्या चीज़ है तू ,तुझे पता नही,
तू है तो है वफ़ा, तू नही ,
मौत भी कहाँ !के तू है मिलती,
कभी, कभी, मौत तो है हरजाई!
तू दे गर इजाज़त,
तभी आ सके वो, तू कहे रुक,
तो क्या मजाल के आगे बढे ,
एक क़दम भी...नही,नही,
हरगिज़ नही, हरगिज़ नही....!
तुझे चाहें कोई
तो नज़र है आती,
मौत को चाहें हम कितनाभी,
उसे फर्क पड़ता नही,
वो बिन तेरे चाहे, मिलती नही!!
वो इतनी पेश कीमती नही!!"

मेरी लाडली.....

" तुझसे जुदा होके,
जुदा हूँ,मै ख़ुद से ,
यादमे तेरी, जबभी,
होती हैं नम, पलकें मेरी,
भीगता है सिरहाना,
खुश रहे तू सदा,
साथ आहके एक,
निकलती है ये दुआ!

ये क्या मोड़ ले गयी
ज़िंदगी तेरी मेरी?
कहाँ थी? कहाँ गयी?
लगता है डर सोचके,
के आसमान हमारे,
जुदा हो गए हैं कितने!

जब तेरी सुबह है होती,
मेरी शाम सूनी-सी
रातमे है बदल जाती,
मुझे सुबबह्का किसी,
कोई इंतज़ार नही,
जहाँ तेरा मुखड़ा नही,
वो आशियाँ मेरा नही,
इस घरमे झाँकती
किरणों मे उजाला नही!
चीज़ हो सिर्फ़ कोई ,
उजाले जैसी, हो वो जोभी,
मुझे तसल्ली नही!

वार दूँ, दुनिया सारी,
मेरी, तुझपे ,ओ मेरी,
तू नज़र तो आए सही,
कहाँ है मेरी लाडली,
मुझे ख़बर तक नही!!
ये रातें भीगीं, भीगीं,
ये आँखें भीगी, भीगी,
कर लेती हूँ बंदभी,
तू यहाँसे हटती नही...!
बोहोत याद आती है लाडली,
कैसे भुलाऊँ एक पलभी,
कोई हिकमत आती नही...!
लाड़ली मेरी, लाडली,
मंज़ूर है रातें अंधेरी,
तुझे हरपल मिले चाँदनी ....

शमा....एक माँ.....

सवाल लाजवाब है?

सदियाँ गुज़र रही हैं,
मुझे रोज़ मरते, मरते,
सैंकडों आफ़ताब आते रहे,
मुझे रौशन करते, करते,
मेरी चिता जला गए....

तिनका तिनका जलके,
ज़र्रा, ज़र्रा बिखरके,
कभी आसमानों पे उड़के,
कभी बियाबाँ मे गिरके,
फिरभी चिंगारियाँ बची हैं...

कहाँसे आती हैं ये हवाएँ?
जो नही देतीं हैं बुझने?
क्या राज़ है, या कोई चाल है,
ये किसका कमाल है?
याकि सवाल लाजवाब है?
शमा

मंगलवार, 17 मार्च 2009

मौत तू इसतरह आ !!


इस तरह आ..

सुन मौत!तू इसतरह आ
हवाका झोंका बन,धीरेसे आ!
ज़र्रे की तरह मुझे उठा ले जा
कोई आवाज़ हो ना
पत्ता कोई बजे ना
चट्टानें लाँघ के दूर लेजा !
किसीको पता लगे ना
डाली कोई हिले ना
आ,मेरे पास आ,
एक सखी बन के आ,
थाम ले मुझे
सीनेसे लगा ले,
गोदीमे सुला दे,
थक गयी हूँ बोहोत,
मीठी सी लोरी,
गुनगुना के सुना दे!
मेरी माँ बन के आ ,
आँचल मे छुपा ले !

1 टिप्पणियाँ:

परमजीत बाली said...

आप से एक निवेदन,आप निराशावादी मत बनें।जीवन में उतार-चड़ाव तो आते-जाते रहते हैं।

सोमवार, 16 मार्च 2009

चिडिया गर चुग जाए खेत....

चिड़िया ग़र चुग जाये खेत....


सुना था मेरे बडोसे
चिड़िया ग़र चुग जाये
खेत,फायदा नही रोनेसे!
ये कहावत चली आयी
गुजरती हुई सदियोसे
ना भाषाका भेद
ना किसी देशकाही
खेत बोए गए,
पंछी चुगते गए
लोग रोते रहे
इतिहास गवाह है
सिलसिला थमा नही
चलताही रहा
चलताही रहा !

एक बगिया बनाएँ...

"जब एक बूँद नूरकी,
भोलेसे चेहरे पे किसी,
धीरेसे है टपकती ,
जब दो पंखुडियाँ नाज़ुक-सी,
मुस्काती हैं होटोंकी,
वही तो कविता कहलाती!

क्यों हम उसे गुनगुनाते नही?
क्यों बाहोंमे झुलाते नही?
क्यों देते हैं घोंट गला?
क्यों करतें हैं गुनाह ऐसा?
ऐसा, जो काबिले माफी नही?
फाँसी के फँदेके सिवा इसकी,
अन्य कोई सज़ा नही??

किससे छुपाते हैं ये करतूते,
अस्तित्व जिसका चराचर मे,
वो हमारा पालनहार,
वो हमारा सर्जनहार,
कुछभी छुपता है उससे??
देखता हजारों आँखों से!!
क्या सचमे हम समझ नही पाते?

आओ, एक बगीचा बनायें,
जिसमे ये नन्हीं कलियाँ खिलाएँ,
इन्हें स्नेह्से नेहलायें,
महकेगी जिससे ज़िंदगी हमारी,
महक उठेगी दुनियाँ सारी...
मत असमय चुन लेना,
इन्हें फूलने देना,
एक दिन आयेगा ऐसा,
जब नाज़ करोगे इन कलियोंका......"

मंगलवार, 10 मार्च 2009

शमा, अपनेही मज़ारकी.....

शमा, अपनेही मज़ारकी.....


रुसवाईयों से कितना डरें, के,
डर के सायेमे जीते हैं हम !
या कि रोज़ मरते हैं हम ?
लिख डाला आपने दीवारों तकपे,
उसे तो मिटाभी सकते हैं हम...
आख़िर कबतक यही करेंगे हम?
डरके ही सायेमे दम तोडेंगे हम?
ये रौशनी नही उधारकी,
सदियोंसे अपनेही मज़ारपे,
जलते हुए चराग हैं हम....

जो दाग ,दामने दिलपे मिले,
वो मरकेभी न मिटा पाएँगे,
सोचते हैं, मूँदके अपनी आँखे,
काश! ये होता,वो ना होता,
गर ऐसा होता तो कैसा रहता....
जब कुछ नही बदल सकते हैं हम,
हरपल डरके सायेमे रहते हैं हम.....

बचीं हैं चंद आखरी साँसे,
अब तो हटा लो अपने साए ,
के कबसे तबाह हो चुके हैं हम....
याद रखना, गर निकलेगी हाय,
खुदही मिट जायेंगे आप,
बून्दभी पानीकी न होगी नसीब,
इसतरह तड़प जायेंगे आप,
डरके साए बन जायेंगे हम...

वैसे तो मिट ही चुके हैं,
हमें मिटानेकी तरकीबें करते,
क्या करें, कि, अपने गिरेबाँ मे
झाँक नही सकते हो तुम?
सब्रकी इन्तेहा हो गयी है,
अब खबरदार हो जाओ तुम,
पीठ मे नही, ख़ंजर,अब,
सीनेमे पार कर सकते हैं हम,
कबतक डरके रह सकते हैं हम?
अपनेही मज़ारका दिया हैं हम...

शमा

रविवार, 8 मार्च 2009

ना ख़ुदा ने सताया.....

ना खुदाने सताया...

ना खुदाने सताया
ना मौतने रुलाया
रुलाया तो ज़िन्दगीने
माराभी उसीने
ना शिकवा खुदासे
ना गिला मौतसे
थोडासा रेहेम माँगा
तो वो जिन्दगीसे
वही ज़िद करती है,
जीनेपे अमादाभी
वही करती है...
मौत तो राहत है,
वो पलके चूमके
गेहेरी नींद सुलाती है
ये तो ज़िंदगी है,
जो नींदे चुराती है
पर शिकायतसे भी
डरती हूँ उसकी,
गर कहीँ सुनले,
पलटके एक ऐसा
तमाचा जड़ दे
ना जीनेके काबिल रखे
ना मरनेकी इजाज़त दे....
शमा

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

चराग के सायेमे....

चराग के सायेमे .......

एक मजरूह रूह दिन एक
उड़ चली लंबे सफ़र पे,
थक के कुछ देर रुकी
वीरानसी डगर पे ।
गुज़रते राह्गीरने देखा उसे
तो हैरतसे पूछा उसे,
'ये क्या हुआ तुझे?
ये लहूसा टपक रहा कैसे ?
नीरसा झर रहा कहाँसे?'
रूह बोली,'था एक कोई
जल्लाद जैसे के हो तुम्ही
पँख मेरे कटाये
हर दिन रुलाया,
दिए ज़खम्भी कई,
उस क़ैद से हू उड़ चली!
था रौशनी ओरोंके लिए,
बना रहनुमा हज़ारोंके लिए
मुझे तो गुमराह किया,
उसकी लौने हरदम जलाया
मंज़िलके निशाँ तो क्या,
गुम गयी राहभी!
किरनके लिए रही तरसती
ना जानूँ कैसे बीती,
काली,रातें अंधेरी,
कितने दिन बीते,
युग बीते याकि?
गिनती हो ना सकी
काले स्याह अंधेरेमे !
चल,जा,छोड़ मत छेड़ मुझे,
झंकार दूँ छूनेसे तेरे,
ऐसी बीनाकी तार नही!
ग़र गुमशुदगीके मेरे
चर्चे तू सुने
कहना ,हाँ,मिली थी
रूह एक थकी हारी ,
साथ कहना येभी,
मैंने कहा था,मेरी
ग़ैर मौजूदगी
हो चर्चे इतने,
इस क़ाबिल थी कभी?
खोजोगे मुझे,
कैसे,किसलिये?
मेरा अता ना पता कोई,
सब रिश्तोंसे दूर चली,
सब नाते तोड़ चली!
बरसों हुए वजूद मिटे
बात कल परसों की तो नही...

जल उठी "शमा"

Tuesday, July 22, 2008

जल उठी" शमा....!"

शामिले ज़िन्दगीके चरागों ने
पेशे खिदमत अँधेरा किया,
मैंने खुदको जला लिया,
रौशने राहोंके ख़ातिर ,
शाम ढलते बनके शमा!
मुझे तो उजाला न मिला,
पर सुना, चंद राह्गीरोंको
थोड़ा-सा हौसला ज़रूर मिला....
अब सेहर होनेको है ,
ये शमा बुझनेको है,
जो रातमे जलते हैं,
वो कब सेहर देखते हैं?
शमा

शायद आइन्दा ज़्यादा लगन से लिख पाउंगी...अब तो कुछ ज़रूरी कामोने घेर रखा है,जो नज़रंदाज़ नही किए जा सकते!!

6 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari said...

अब सेहर होनेको है ,
ये शमा बुझनेको है,
जो रातमे जलते हैं,
वो कब सेहर देखते हैं?


--बहुत उम्दा रचना...बधाई..

अनुराग said...

अब सेहर होनेको है ,
ये शमा बुझनेको है,
जो रातमे जलते हैं,
वो कब सेहर देखते हैं?

बहुत बड़ी बात कह गयी आप.....सारा सार यही छिपा है

डा० अमर कुमार said...

=^..^=

मोह्तरमा,
ग़र बदतमीज़ी में शुमार न हो, तो अर्ज़ करूँ ?

चंद हरुफ़ों व नुक्तों में रद्दोबदल की ग़ुंज़ाइश मालूम होती है,
इस सफ़े पर नमूदार होने वाला हर कोई उर्दूदाँ तो न होगा । मसलन चराघों को चराग़ों वा सेहर को सहर के तौर पर नुमाँया किया जाता, तो बेहतर तरीके से दिल तक पहुँचने की सूरत बन जाती !

vipinkizindagi said...

achcha likha hai

ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ said...

"मैंने खुदको जला लिया,
रौशने राहोंके खातिर ,
शाम ढलते बनके शमा!
मुझे तो उजाला न मिला,
पर सुना, चंद राह्गीरोंको
थोड़ा-सा हौसला ज़रूर मिला...."
बहुत प्रेरक पंक्तियाँ है। आप आगे भी इसी प्रकार राहों को रौशन करती रहें, यही कामना है।

दीपक said...

"मैंने खुदको जला लिया,
रौशने राहोंके खातिर ,

बहुत सुंदर दील को छुने वाली रचना !! आभार